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ग्रावा॑णेव॒ तदिदर्थं॑ जरेथे॒ गृध्रे॑व वृ॒क्षं नि॑धि॒मन्त॒मच्छ॑। ब्र॒ह्माणे॑व वि॒दथ॑ उक्थ॒शासा॑ दू॒तेव॒ हव्या॒ जन्या॑ पुरु॒त्रा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

grāvāṇeva tad id arthaṁ jarethe gṛdhreva vṛkṣaṁ nidhimantam accha | brahmāṇeva vidatha ukthaśāsā dūteva havyā janyā purutrā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ग्रावा॑णाऽइव। तत्। इत्। अर्थ॑म्। ज॒रे॒थे॒ इति॑। गृध्रा॑ऽइव। वृ॒क्षम्। नि॒धि॒ऽमन्त॑म्। अच्छ॑। ब्र॒ह्माणा॑ऽइव। वि॒दथे॑। उ॒क्थ॒ऽशासा॑। दू॒ताऽइ॑व। हव्या॑। जन्या॑। पु॒रु॒ऽत्रा॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:39» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उनतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में वायु और अग्नि के गुणों को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जो वायु और अग्नि (ग्रावाणेव) दो मेघों के समान (तत्) उस (अर्थम्, इत्) द्रव्य को ही (जरेथे) नष्ट करते वा (विदथे) शिल्प यज्ञ में (गृध्रेव) गृद्धों के समान (निधिमन्तम्) जिसमें बहुत निधि धनकोष विद्यमान उस (वृक्षम्) छेदन करने योग्य जलस्थल को (अच्छ) अच्छे प्रकार नष्ट करते (ब्रह्माणेव) और जैसे समस्त वेदवेत्ता जन हों वैसे वर्त्तमान (उक्थशासा) वा जिनकी शिक्षायें कही हुई हैं उन (दूतेव) दूतों के समान वर्त्तमान (हव्या) तथा ग्रहण करने योग्य (जन्या) अनेक पदार्थों की उत्पत्ति करनेवाले (पुरुत्रा) और बहुत पदार्थों में वर्त्तमान हैं उन वायु और अग्नि का अच्छे प्रकार प्रयोग तुम लोग करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो वह्नि आदि पदार्थ मेघ वा पक्षियों तथा विद्वानों और दूत के समान कार्य्यसिद्धि करनेवाले हैं, उनको जानके प्रयोजनों को सिद्ध करना चाहिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वाय्वग्निगुणानाह।

अन्वय:

हे विद्वांसो यौ वाय्वग्नी ग्रावाणेव तदर्थमिदेव जरेथे विदथे गृध्रेव निधिमन्तं वृक्षमच्छ जरेथे ब्रह्माणेवोक्थशासा दूतेव हव्या जन्या पुरुत्रा वर्त्तेते तौ यूयं संप्रयोजयत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ग्रावाणेव) मेघाविव (तत्) एव (अर्थम्) द्रव्यम् (जरेथे) जरयतः (गृध्रेव) गृध्रा इव (वृक्षम्) वृश्चनीयं जलं स्थलं वा (निधिमन्तम्) बहवो निधयो विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (अच्छ) (ब्रह्माणेव) यथा समग्रवेदविदौ (विदथे) शिल्पाख्ययज्ञे (उक्थशासा) उक्ता उक्था शासा शासनानि ययोस्तौ (दूतेव) दूतवद्वर्त्तमानौ (हव्या) आदातुमर्हौ (जन्या) जनितारौ (पुरुत्रा) पुरुषु बहुषु पदार्थेषु वर्त्तमानौ ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये वह्न्यादयः पदार्था मेघवत्पक्षिवद्विद्वद्वद्दूतवच्च कार्यसाधकाः सन्ति तान् विज्ञाय प्रयोजनानि साधनीयानि ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वायू व अग्नी इत्यादी पदार्थ किंवा विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे अग्नी इत्यादी पदार्थ मेघ व पक्ष्याप्रमाणे, विद्वानाप्रमाणे व दूताप्रमाणे कार्यसिद्धी करणारे असतात, त्यांना जाणून प्रयोजन सिद्ध करावे. ॥ १ ॥